hindisamay head


अ+ अ-

कविता

व्यंजना में ध्वनित

उदय शंकर सिंह उदय


जो न कहना था
वही हम कह गए
व्यंजना में फिर
ध्वनित हो रह गए।

झूठ था
उस पर चढ़ा
फिर से नमक
सत्य के मुख की
हुई फीकी चमक
आ गए फिर
चारणों की पंक्ति में
नम्रता ओढ़े
नमित हो रह गए।

दोष था मेरा
कि मैं निर्दोष था
बस इसी से
हो गया कुछ
रोष था
कुनमुनाते रह गए
सब शब्द तीखे
होंठ तक आए
ललित हो बह गए।


End Text   End Text    End Text